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Saturday, October 3, 2009

कविता मैं तुझको किस रूप मैं लिखूं

कविता मैं तुझको किस रूप मैं लिखूं
जब भी कभी मैं तुझको गंभीरता से लिखता हूँ,
तो तू सागर सी गहरी हो जाती है,
पता नही लोग तुझमे क्या क्या ढूँढ़ते हैं,
क्या तू उन तक पहुच पाती है,
शायद हाँ, शताद ना, मुझको तो नही पता,
कभी तू हस्ये रूप मैं लोगो से मिलती है,
कभी तू एक कड़वी सच्चाइ लिए होती है,
कोई कहता है की तू समाज का दर्पण है,
कोई कहता है की तू कवी की कल्पना है,
तेरे अनेक-एक रूप होने के बाबजूद
तेरा अनेक-एक लोगो से रु-बरु होने के बाबजूद,
क्या तू उन तक apni छाप छोड़ पायी ,
क्या तू इस समाज को रत्ती भर भी बदल पाई,
आखिर तेरे जन्म लेने का मकसद क्या है,
मुझे तो लगता है की तेरा जन्म तो
मात्र मनोरंजन के लिए ही ही होता है,
तभी तो ये समाज सदियों से
आज तक बैसे ही रोता है