तुम एहसास हो, जज्बात हो, क्या हो तुम,
कुछ तो हो, यही कही दिल आस- पास हो तुम,
कौन हो तुम , क्या हो तुम, कुछ तो खास हो तुम
लेकिन जो भी हो बहुत ही अपने से हो तुम,
हाँ मेरा तो यही मानना है, तुम्हारी तुम जानो,
ऐसा क्यूँ, जब भी हम आस- पास होते हैं,
तो क्या तुम मुझको नही ढूँढती रहती हो,
लेकिन में तो सिर्फ तुमको ही ढूँढता रहता हूँ,
कई बार मुझे भी ऐसा ही लगता है की
तुम भी सिर्फ मुझे ही ढूँढ रहे होते हो,
क्यूंकि हमारी नजरे मिलने के बाद
तुम्हारे चेहरे पर आरी संतुष्ट सी मुस्कान,
तो कम से कम यही कहती है,
मेरा तो यही मानना है, तुम्हारी तुम जानो,
और फिर तुम्हारा बार बार ए कहना,
की में आज- कल अपना कम नही कर पाती,
सारा वक़्त तो यूँ ही बात करने में निकल जाता है
तुम्हारा "यूँ ही" कहना, और फिर मुस्कराना ,
आखिर तुमने ए एहसास करा ही दिया मुझको,
आखिर में भी कुछ तो खास हूँ तुम्हारे लिए,
मेरा तो यही मानना है , तुम्हारी तुम जानो,
अच्छा चलो ठीक है, मान ले ते है, जैसा तुमने कहा,
में अपनी बात इन तो पंक्तियों के साथ ख़त्म करता हूँ,
"जरूरी नही हर बात का जुबान पे आना,
वो नजर ही क्या जो इशारा न समझे
Monday, November 2, 2009
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