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Wednesday, January 20, 2010

और माँ हार गयी

bechari Maa



मैंने कहा ना , मुझे हाथ न लगाना,

जब तक माँ यहाँ पर है,

लेकिन माँ के यहाँ होने से इस बात का क्या मतलब,

है मतलब, मुझे टेंशन होती है, और टेंशन मैं ए सब

नहीं होता,

अब ए तुमको सोचना है, की तुमको मैं चाहिए या माँ ,

अगले दिन मैं माँ को गाँव छोड़ आया,

उस बेबस , लाचार माँ को, जिसको इस समय मेरी जरूरत थी, लेकिन मेरी अपनी भी तो जरूरत हैं,

"काम" जीत गया, और "माँ" हार गयी,



अब माँ मुझको सपने मैं दिखती है,

लेकिन मैं वहां भी उससे नजरे चुरा लेता हूँ,

की कही माँ आवाज न दे दे,

और आज "माँ" सपने मैं भी हार गयी,

मैं तो पहले से ही हiरा हुआ था.

नईदिल्ली रेलवे स्टेशन , प्लेटफोर्म नो २

नईदिल्ली रेलवे स्टेशन , प्लेटफोर्म नो २

लोकल आने मैं अभी 20-२५ मिनट बाकि,

मुझे को भूख लगी,

मैंने आलू-पूरी वाले से एक पत्ता खरीद लिया,

थोडी दूरी पर कुछ बच्चे, उम्र कोई ७-८-१० साल,

कुछ अधनंगे, कुछ फटेहाल,

टुकुर टुकुर मुझको खाते हुए देखते रहे,

मैंने खाकर जैसे ही पत्ता, कूडेदान मैं फेंका ,

वो सब उसपर टूट पड़े , लड़ने लगे,

जिसके हाथ जो लगा, वो उसको चाटने लगा,

मैंने उनको डांटा , लेकिन वो चाटने मैं मस्त,

फिर भी मैंने उनको रोका, ऐसा मत करो,

कितने दिन से भूखे हो, कोई कुछ नहीं बोला,

तभी पूरी वाला बोला , अरे साहब रहने दीजिये,

ये इनकी रोज़ की आदत है,

मैंने कहा यार, ये छोटे छोटे बच्चे हैं, भूखे हैं,

मुझ से रहा नहीं गया, वो ६-७ थे,

मैंने सभी को एक -एक पत्ता दिलवा दिया,

सभी खुश, उनकी आँखों की चमक देखकर ,

मेरा सीना गर्व से फूल गया,

और मुंझे लगने लगा, की आज मैंने

भूखे हिन्दुस्तान का पेट भर दिया,

मैं इसी से संतुष्ट हो गया,

लोकल आई , मैं उसमे बैठ गया,

लिकं मेरी आँखों के सामने ,

बही भूखे-नंगे बच्चे आ रहे थे बार-बार

और मैं सोच रहा था की ,

कल से मैं आलू-पूरी नहीं खाऊँगा