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Thursday, April 7, 2011

मैं भी धीरे धीरे जानने लगा हूँ..........


तेरे शब्दों कि सजावट
तेरी बातों कि बनावट
कहा चली जाती हे
जब तुझे बाकई
सच बोलना होता हे
सच बोलने के नाम पर
तुम अक्सर बगले
क्यूँ झाँकने लगते हो!
तुम बाकई छलिया हो
या ये मेरे सोचने का
एक गलत ढंग,
जो तुम्हरी रचनाओ से
प्रेरित करता है मुझे
कि तुम शायद ऐसे ही हो
एक सच्चे दिल वाले इंसान,
लेकिन मैं भी कितना पागल हूँ
कि मैं ये कैसे भूल जाता हूँ
कि तुम सबसे पहले
हो एक इंसान,
जिसकी सामाजिक बाध्येताए
उसको रोकती हैं
सच बोलने से,
उसे मालूम हे कि उसको
सिर्फ कहलाने भर का
इंसान ही बनना हे
दिखावा करना हे.
ताकि उसका अस्तित्व
बना रहे, इस मिथ्या संसार में
अगर उसने सच बोलने कि
हिम्मत कि, तो उसको भी
"अन्ना हजारे" कि तरहा
शायद जंतर-मंतर पर
आमरण अनशन पर बैठना
होगा!,
वो जानता हे कि सच बोलना
भी कभी इतना आसान होता हे
शायद नही!
अब मुझे उससे कोई
गिला-शिकवा नही हे!
मैं भी धीरे धीरे
जानने लगा हूँ!