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जब छोटा था, छोटा मतलब छोटा, यानि के ५वि ६वि कक्षा में पढता था , तब हमारे यहाँ कोयले कि
प्रेस होती थी! प्रेस में अंगारे जलाने का काम मेरा ही होता था! बाबू जी ये काम मुझको ही सौंपते थे,
ऐसा इसलिए नही कि मैं इस काम में निपुड था, बल्कि इसमें मेरा व्यक्तिगत
फ़ायदा था, अब आप लोग सोच रहे होंगे कि इत्ती छोटी उम्र में कोई फ़ायदा
कैसे सोच सकता है, वो भी उस ज़माने में, लेकिन भैये फ़ायदा था तभी हम सबसे
आगे रहते थे कि प्रेस हम गरम करेंगे! मुझको इत्ती छोटी उम्र से ही चाय कि
लत कुछ हद्द से जायदा हि लग गयी थी! जब देखो कैसे चाय बना कि पी जाये !
इसी जुगाड़ में रहता था! लेकिन प्रेस जलाने का काम तो सिर्फ इतवार को ही
होता था! बस घर के एक कौने में हम प्रेस गरम करते थे, और चुपके से एक
बड़ी सी कटोरी में , पानी, चाय कि पत्ती/ चीनी और ढूध डालकर प्रेस के कोयले
पर चढ़ा दिया करते थे,
और हाथ में पंखा या गत्ता लेकर प्रेस गरम करने के साथ साथ अपनी चाय भी बना
लिया करते थे! हालाँकि चाय धुआंयी हुई बनती थी, लेकिन जिस स्मार्टनेस हम
चाय बनाते थे तो उसका वो स्वाद भी गज़ब का होता था! कई बार चाय बन्ने में
देरी हो जाती थी, बाबू आवाज लगाते प्रेस अभी तक गरम नही हुई, हम धीरे से कहते कि बस होने वाली है कोयले जरा गीले हैं बाबू जी! अब बाबू जी को क्या पता कि हम चाय पका रहे हैं!
कहते जल्दी से लेकर आ!
लेकिन अब हमने चाय पीनी काफी काम कर दी है! इतनी महगाई में चाय, चीनी
इतनी कडवी होती जा रही है कि पूछो मत! जब भी कोई आता है दोस्त बैगेरा हम
महगाई का रोना शुरू कर देते हैं! लेकिन पत्नी जी अपनी फोरमेलिटी निभाने से
बाज नही आती! तब हम कहते भाई देख ले मैंने तो अब चाय पीनी छोड़ दी है!
दोस्त कि और इशारा कस्र्के पूछते कि तेरे को पीनी हो तो बनाबा दूँ! अब
बेचारा वो शर्म के मरे मना कर देता! हाँ ये बात और है कि ऑफिस में हम २
चाय एक्स्ट्रा ही पीकर घर को जाते हैं! क्या करे इस मुई नेह्गायी से कैसे
तो पार पाना पड़ेगा! पता नही ये महगाई और कौन कौन से हमारे शौक छुडवाएगी !