जैसे ही एक मनचले सिरफिरे ने
शांत सुन्दर कमल से सजे हुए
तालाब में एक भाई-भरकम
पत्थर जोरों से फेंका,
एक जोरदार छपाक कि
आवाज हुई, शांति भंग हुई
कुछ क्षण के लिए,
तालाब बापिस अपनी
धीर -गंभीर मुद्रा में
बापिस आ गया,
लेकिन उस शोर कि
आवाज सुन कुछ विशेष
तथाकथित ख्याति प्राप्त
विशेषग्ये बहा इकठ्ठे हो गए,
बहस जोरो कि छिड़ गयी
कोई पत्थर कितना बजनी था
ये पता लगाने में जुट गया
कोई पत्थर र्गिरने से हुई आवाज
कि फ्रेकुएंसी जानने में लग गया
कोई कितना पानी उछलकर
तालाब से बाहर छिटक गया
इसकी जानकारी जुटाने में लग गया
एक साहब ने तो कमल ही कर दिया
उन्होंने तालाब कि उत्पत्ति पर ही सवाल
खड़े कर दिए, उनके समर्थन में कई और
लोग भी उन्ही कि भाषा में बात करने लगे
बात तालाब से शुरू हुई
और महासागर तक जा पहुची
किसी एक ने उन महासागरों कि
उत्पत्ति और सार्थकता पर गंभीर
प्रश्नचिन्ह लगा दिया, और अपने
अपने दूषित तथ्यों से न जाने
क्या क्या कह दिया, लोगो कि
भावनाओ को आहत कर दिया,
सभी विशेषग्ये आपस में भिड़ गए
और पत्थर फेंकने वाला चुपचाप
तमाशा देखता रहा, मुस्कराता रहा
ये सब देख में सोचने लगा
कि कही भी कुछ फर्क नही हे
चाहे वो पार्लियामेंट हो
या साहित्य का दरबार
बहस बराबर छिड़ती हे
कई बार बहस मुद्दों पर होती हे
कई बार बहस के लिए मुद्दे ढूंढे जाते हैं
लेकिन इस सब से किसको क्या
फ़ायदा होता हे ये कोई नही जनता
शायद उस मनचले-सिरफिरे को
कुछ पता हो..........
Thursday, July 29, 2010
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