उस दिन जेठ कि तपती दोपहरी
एक रेस्टोरेंट में बैठे चाय कि चुसकिया
ले रहे थे हम दोनों,
टाइम पास कर रहे थे
कि गर्मी कम हो तो घर को
चला जाये
अचानक से मौसम ने ली अंगड़ाई
जोरदार झामा-झम बारिश
सुहाना मौसम, चेहरे में खिलावट
एक नयी जिदगी का एहसास
रेस्टोरेंट से निकल हम चल पड़े
मौसम का आनंद लेने
वक़्त का नही रहा ख्याल
यूँ ही हाथ में हाथ डाले
इधर से उधर घुमते रहे
ये हम दोनों का विश्वाश था
शाम गहरी होने लगी
उसको भी शायद घर जाने
कि नही थी जल्दी
अचानक लाइट चली जाती हे
उसका डरकर और करीब आना
हाथ को कसकर पकड़ लेना
ये विश्वाश ही था, हम दोनों का
मेने कहा घर नही जाना क्या
कहने लगी क्या जल्दी है
ऐसा मौसम रोज रोज नही आता
आज अच्छा लग रहा हे
तुमको नही लग रहा क्या
अब मेरा विश्वाश डोलने लगा
मुझे डर लगने लगा
मेने उसका हाथ छोड़ने कि
एक नाकाम कोशिश कि
लेकिन उसने और कस के मेरा हाथ
जकड लिया, मेरे और करीब आने लागी
मेने अँधेरे में उसकी आँखों में झाँका
उनमे बिजली कि सी चमक थी
उसने निगाहें नही झुकाई
मुझे इतने ठन्डे मौसम में भी
पसीने आने लगे
फिर वो हुआ, जिसका
हम दोनों को नही था एहसास
हम बहक गए, अब क्या होगा
में घबरा गया,
और अचानक से सोते से जाग गया
मेरा पूरा बदन पसीने से तर-बतर
मेने खुदा को शुक्रिया कहा
कि ये सब सपना था
हम दोनों का विश्वाश
अभी कायम था
Saturday, May 29, 2010
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