हे न कुछ अजीब सा संबोधन
मगर हे ये सत्ये,
बात कुछ ऐसे ही चल रही थी
या कहे कि जुबान फिसल रही थी
बातों ही बातों में वो बोले
कुछ लिखने का मूड बना रहे हैं
हमने कहा हम भी ,मूड बनायेंगे
घर जाकर कुछ न कुछ पकाएंगे
सुरा पर तो अपना अधिकार हे
बिना सुन्दरी के मन बहलाएँगे!
वो बात को तुरंत ताड़ गए
बोले सुंदरी घर पर नही हे?
बात सुरा से शुरू होकर
सुन्दरी पर अटक गई
हमने कहा रोज दाल-रोटी
खाकर गुजारा करते हैं,
बोली आपका इशारा
हम समझ रहे हैं
लगता आप किसी मुर्गी
कि तलाश में भटक रहे हैं;
हमने मौके कि नजाकत को
तुरंत भांपा!
और अपना पासा तुरंत
मोह्तिर्मा पर फेंक डाला,
वो हमारी सोच से कही
ज्यादा, उस्ताद निकली,
और बोली, आपको
मटन -टिक्का, या चाहिए
चिक्केन चिली ?
आप रोंग नंबर डायल
कर रहे हैं,
यहाँ मुर्गी तो हे
मगर शाकाहारी हे
फिर क्यूँ आप गलत-फ़हमी में
पल रहे हैं!
उनके इस संबोधन से
हम पानी पानी हो गए
और उनकी इस अदा के
हम दीवाने हो गए!
हमने कहा हम इस
शाकाहारी मुर्गी को भी
पकाएंगे, मगर क्या पता था
कि बातों ही बातों में
ये कविता लिख जायेंगे!
Wednesday, December 29, 2010
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