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Wednesday, June 9, 2010

क्या होता हे

जब भी जाता हूँ उसके दर पर उसे गुमान होता हे

वो शख्स ऐसा है जो कभी कभी हैरान होता हे



भूल जाऊँ अगर जाना मैं उसके दर पर कभी

वो शख्स मुझसे मिलने का बेहद तलबगार होता हे



कुछ तो बात हे उसके और मेरे दरमियाँ

बरना क्यूँ ढूँढ कर मुझे वो मेहरबान होता हे



क्या तड़प हे हमारी इक-दूजे के लिए नही जानते

कभी में परेशां , to कभी वो परेशान होता हे



नहीं पड़े आजतक हम आशिकी में गौरव

दिल कहता हे कि पड़ भी जाओ तो क्या होता हे

5 comments:

रश्मि प्रभा... said...

bahut hi badhiyaa..... dono ke dil me ek zubaan hota hai

संजय भास्‍कर said...

बहुत सुंदर !
कविता को एक नए अंदाज़ में परिभाषित किया है आप ने !

संजय भास्‍कर said...

alok ji
मेरे ब्लोग मे आपका स्वागत है
क्या तुम मुझसे शादी करोगी  ?
http://sanjaybhaskar.blogspot.com/2010/06/blog-post_09.html

Dev K Jha said...

आलोक जी, बहुत सही लिख डाला भाई.

Khare A said...

aap sabhi jano ka dil se shukriya, yun hi ashriwad ba utsah dete rahiey