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Saturday, October 16, 2010

जमाना बहुत जालिम हे ............


जिन्दगी इस कद्र बेजार क्यूँ हे
फिर भी हमें ऐतबार क्यूँ हे,

हमने गुनाह-ए-इश्क कब किया
फिर भी उनको हमारा इंतजार क्यूँ है,

सोचा था इश्क नही हे मेरी मंजिल
फिर भी जेहन में ये खुमार क्यूँ हे,

जोड़ते हैं नाम उनसे बेबजह मेरा
ज़माने को मुझसे ही खार क्यूँ हे,

हमने बदल दिए हैं रास्ते फिर भी
लोगों के मन में, ये सवाल क्यूँ हे,

ये जमाना बहुत जालिम हे "गौरव"
तू यूँ ही , खामखा परेशान क्यूँ हे!

9 comments:

उस्ताद जी said...

6/10

उम्दा ग़ज़ल
सभी शेर अच्छा प्रभाव छोड़ते हैं

संजय भास्‍कर said...

बेहतरीन ग़ज़ल.......दिल से मुबारकबाद|

Manish aka Manu Majaal said...

आप ही ने तो किया है, अरमानों को ग़ज़ल,
अब पूछते है, चर्चा सरे बाज़ार क्यू है ?

अच्छी ग़ज़ल, लिखते रहिये ...

Anamikaghatak said...

जिन्दगी इस कद्र बेजार क्यूँ हे
फिर भी हमें ऐतबार क्यूँ हे,

हमने गुनाह-ए-इश्क कब किया
फिर भी उनको हमारा इंतजार क्यूँ है
bahut achchhi panktiyaa.........sundar manobhav

प्रवीण पाण्डेय said...

ज़माने को खार खाने दीजिये, आप ऐसा जबर्जस्त लिखते रहिये।

अनामिका की सदायें ...... said...

हमने गुनाह-ए-इश्क कब किया
फिर भी उनको हमारा इंतजार क्यूँ है,

हमने इज़हार-ए-इश्क कब किया
फिर यूँ उनको हमारा इंतजार क्यूँ है,

आलोक जी गुस्ताखी माफ, गज़ल की जानकारी नहीं रखती हूँ लेकिन अगर ये लाइन ऐसे होती तो ज्यादा ठीक होता शायद ?

बहुत अच्छी गज़ल.

deepti sharma said...

bahut khub
achhi gajal hai

kabhi yaha bhi aaye
www.deepti09sharma.blogspot.com

S.M.Masoom said...

आप सब को बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीकात्मक त्योहार दशहरा की शुभकामनाएं.
आज आवश्यकता है , आम इंसान को ज्ञान की, जिस से वो; झाड़-फूँक, जादू टोना ,तंत्र-मंत्र, और भूतप्रेत जैसे अन्धविश्वास से भी बाहर आ सके. तभी बुराई पे अच्छाई की विजय संभव है.

ek achchi gazal hai.

ZEAL said...

सोचा था इश्क नही हे मेरी मंजिल
फिर भी जेहन में ये खुमार क्यूँ हे,

sundar panktiyan .

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