!
कितना आसान होता हे
कह देना कि दीवारों
के भी कान होते हैं,
इतना कमजोर कब से
हो गया ये आज का इंसान
जिसे खुद पर नही हे
जरा सा भी इत्मिनान
कि अपनी गुस्ताखिओं
का जिम्मा, फोड़ देता हे
एक बेजान दिवार का
सहारा लेकर !
और कह देता है कि
दीवारों के भी कान होते हैं!
गनीमत हे कि उसने
ये कभी नही कहा
कि दीवारों कि
भी जुबान होती हे
कह देना कि दीवारों
के भी कान होते हैं,
इतना कमजोर कब से
हो गया ये आज का इंसान
जिसे खुद पर नही हे
जरा सा भी इत्मिनान
कि अपनी गुस्ताखिओं
का जिम्मा, फोड़ देता हे
एक बेजान दिवार का
सहारा लेकर !
और कह देता है कि
दीवारों के भी कान होते हैं!
गनीमत हे कि उसने
ये कभी नही कहा
कि दीवारों कि
भी जुबान होती हे
8 comments:
bahut badhiyaa bhai...
अविश्वास जब हद से गुजर जायेगा तो दीवारों की जुबानें भी आ जायेंगी।
बहुत ही भावपूर्ण कविता.....बिल्कुल सच्चाई बयां करती हुई.
सार्थक और भावप्रवण रचना।
इंसानों की फितरत को बाखूबी बयान किया है .. दोष दूसरे के माथे डालते हैं हमेश ... अच्छा लिखा है ...
एक बेजान दिवार का
सहारा लेकर !
और कह देता है कि
दीवारों के भी कान होते हैं!
इंसान की तुच्छ मानसिकता को दर्शाती एक सार्थक प्रस्तुति ...शुक्रिया आपका
सार्थक और भावप्रवण रचना।
aap sabhi ka dil se abhaar, rachna ke samarthan ke liye
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