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Wednesday, January 19, 2011

दीवारों के भी कान होते हैं

!

कितना आसान होता हे
कह देना कि दीवारों
के भी कान होते हैं,
इतना कमजोर कब से
हो गया ये आज का इंसान
जिसे खुद पर नही हे
जरा सा भी इत्मिनान
कि अपनी गुस्ताखिओं
का जिम्मा, फोड़ देता हे
एक बेजान दिवार का
सहारा लेकर !
और कह देता है कि
दीवारों के भी कान होते हैं!
गनीमत हे कि उसने
ये कभी नही कहा
कि दीवारों कि
भी जुबान होती हे

8 comments:

रश्मि प्रभा... said...

bahut badhiyaa bhai...

प्रवीण पाण्डेय said...

अविश्वास जब हद से गुजर जायेगा तो दीवारों की जुबानें भी आ जायेंगी।

उपेन्द्र नाथ said...

बहुत ही भावपूर्ण कविता.....बिल्कुल सच्चाई बयां करती हुई.

संजय भास्‍कर said...

सार्थक और भावप्रवण रचना।

दिगम्बर नासवा said...

इंसानों की फितरत को बाखूबी बयान किया है .. दोष दूसरे के माथे डालते हैं हमेश ... अच्छा लिखा है ...

केवल राम said...

एक बेजान दिवार का
सहारा लेकर !
और कह देता है कि
दीवारों के भी कान होते हैं!
इंसान की तुच्छ मानसिकता को दर्शाती एक सार्थक प्रस्तुति ...शुक्रिया आपका

Patali-The-Village said...

सार्थक और भावप्रवण रचना।

Khare A said...

aap sabhi ka dil se abhaar, rachna ke samarthan ke liye