कागज का रावन
हमने एक बार फिर से कागज के रावन को जला दिया
और अपने मन को यूँ ही संतोष दिला दिया,
ए दुनिया भी कितनी बिचित्र है
अरे भाई रावन तो एक चरित्र है,
जो इस बात को आज तक न समझ पाई,
की कही कागज के रावन के पुतले जलने मात्र से
किसी चरित्र को दी जा सकती है विदाई,
जलाना अगर तो अपने अन्दर के रावन को जलाओ
एक बार फिर से मेरे देश को अमन-चैन की रह दिखाओ
और भाई-चारे का सन्देश फैलाओ,
हम ईद मनाये , और तुम दिवाली मनाओ.
गरीबी का रावन
अगर रावन जलाना है तो
गरीब के पेट की भूख का रावन जलाओ,
जो दिन-दूनी रत-चौगनी बढती महगाई
की मर से सुरसा के मुह की तरहा
बढ़ता ही जा रहा है,
क्या इस तरफ किसी तथा-कथित
कलयुगी राम का ध्यान जा रहा है,
जिस तरहा कागज के फूलों से
खुशबू आ नही सकती ,
उसी तरहा रावन को जलाने से
किसी गरीब की भूख नही मिट सकती,
सवाल तो पहले पेट भरने का है
जो आश्वासन की खयाली रोटी से नही,
हकीकत की रोटी से भरेगा,
और जिस दिन ए तथा-कथित कलयुगी राम
गरीबो के इस दिव्स्वापन को साकार कर पाएंगे
उस दिन सच मैं वो रावन को मर पाएंगे.
Wednesday, October 7, 2009
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1 comment:
आलोक जी ...प्यार से सुन्दर शब्दों से कटाक्ष ...अच्छी लगी आप की लेखनी !!!!!!!!!!निर्मल पानेरी
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