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Sunday, November 21, 2010

गरीबों के लिए रोटी मांगता हूँ......


बस गरीबों के लिए रोटी मांगता हूँ
सुदामा के लिए श्री कृष्ण मांगता हूँ
जरुरत आज हे यहाँ तुम्हारी प्रभु
आज भूख से कितना त्रस्त हे मनुज
तोड़ दो प्रभु इन युगों के बंधन को
ऐसा वर मैं तुमसे आज मांगता हूँ

बस गरीबों के लिए रोटी मांगता हूँ

ये तंत्र अब कालातंत्र हो चूका हे
इंसानियत का इसकदर क्षरण हो चुका हे
मर चुकी हे आत्मा इन सभी कि
अब तो जीवन-मरण का प्रश्न हो चुका हे
नहीं भरते हैं पेट जिनके भरे हुए हैं
इस कद्र ये जमीन पर गिरे हुए हैं
नही दिखती भूख से तड़पती जिन्दगी
फिर भी ये गरीबो के रहनुमा बने हुए हैं

भर रहे हैं ये घर अपना दिनों-रात
नही सुनाई पड़ती इनको भूखो कि आवाज
बेशर्मी से कहते हैं कि गोदाम भरे हुए हैं
फिर भी वो लोग भूख से मर रहे हैं
जब किसी खून कि सजा फांसी हे यहाँ
फिर ये हत्यारे क्यूँ खुलेआम घूम रहे हैं
लटका दो इन हत्यारों को फांसी पर
मैं ऐसा ही कुछ कानून मांगता हूँ
बस गरीबों के लिए रोटी मांगता हूँ
सुदामा के लिए श्री कृष्ण मांगता हूँ

Thursday, November 18, 2010

ये नेट रिलेशन कि गड्डी यूँ ही...............


जैसे ही हमने मोहतिरमा जी को खटखटाया
उन्होंने फ़ौरन बेकफुट डिफेंसिव शोट खेला!

हाई; कैसे मालूम पड़ा कि में ऑनलाइन हूँ

हमने स्थिति को भांपा और अगली बाल
"दूसरा" बड़ी मासूमियत से फेंक डाला
हमें कहा इसमें कोई खास बात नही
कोई ओन हे या ऑफ हम पता लगा ही लेते हैं
बाय द वे क्या हाल-चाल हैं आपके
हमने झूठ कि कढ़ाई में एक छोंक
मारते हुए पूच्छा!
बहुत दिन बाद नजर आये
बैसे हमने उनको बहुत कम ऑफ लाइन
होते देखा था,
वो बेट-न-पेड क्लोस लाते हुए
हमारी गुगली के इफ्फेक्ट को कम करते

हुए बोली, हाँ आज कई दिन बाद ऑनलाइन हुई हूँ
टाइम ही नही मिलता,.

हमें तुरंत उनकी हाँ में हाँ मिलाई,
जी हाँ टाइम कहा हे आजकल किसी
के पास!
मोहतिरमा बहुत खुश हुई,
लेकिन वो ये नही जानती थी
कि अगर वो सारा दिन बेटिंग
कर सकती हैं तो हम भी
लेफ्ट-आर्म- रोउन्द द विक्केट
बौलिंग करते रहते हैं सारा दिन!

अब मोहतिरमा जी सोच रही थी कि
इससे कैसे छुटकारा पाया जाये!

तुरंत बोली, वेट कॉल हे
फिर बो वेट कॉल इतनी लम्बी होती हे
कि वो ख़त्म ही नही होती!
फिर एक ऑफ लाइन मेसेज

D.C. हो गया था!

मोहतिरमा जी ये सोच रही थी कि
हम उनका वेट कर रहे हैं,
उनको ये नही मालूम कि ये
रेलवे नेटवर्क नही हे, जब तलक
लाइन क्लेअर नही मिलेगी
गड्डी आगे नही बढती ,
अरे ये विर्चुअल नेटवर्क हैं
जिसे किसी सिग्नल कि या
क्लेअरेंस कि जरुरत नही पड़ती
लोगबाग अबाउट-टार्न होते देर नही लगाते
आपका स्टेशन बीजी तो किसी और स्टेशन पर
बढ़ जाते हैं!
सिलसिला यूँ ही चलता रहता हे
वेट और कॉल के चक्कर में
वेटिंग लिस्ट बहुत लम्बी होती जाती हे
और ये नेट रिलेशन कि गड्डी यूँ ही
आगे बढती जाती हे!

Saturday, November 13, 2010

जिन्दगी और मौत का अंतर!.............


जिन्दगी !
एक उलझा हुआ प्रश्न;
मौत!
एक शाश्वत सत्ये!
इंसान !
जिन्दगी से मौत
तक का सफ़र
पूरा करने में लगा रहता हे,
बाबजूद इसके, कि उसको पता हे
मेरा अंत वही हे
फिर भी, जुटा हुआ हे,
बहुत कुछ पाने कि लालसा
समेटने कि चाह!
साम-दाम, दंड-भेद
जानता हे कि गलत हे
फिर भी सही ठहराता हे
अपने आप को धोखा
देते हुए,
आखिर में मौत को
गले लगाता हे!
ये चक्र चलता रहता हे,
कभी न ख़त्म होने वाला
सिलसिला,
कौन हारा, कौन जीता!
जिन्दगी बेरहम, बेनतीजा!
जन्म जन्मान्तर,युग युगांतर,
यही है जिन्दगी और मौत का
अंतर!

Wednesday, November 10, 2010

एक कविता एक कोशिश...


दादा दादी, नाना नानी,
सबकी राजदुलारी बिटिया

मम्मी पापा , चाचा चाची
के आँखों कि ज्योति बिटिया

मामा बन हुआ बाबरा मन
गोद लिए घूमू इस उपबन

जब चहक उठती किलकारी इसकी
घर -आँगन कि खिलती बगिया

झूम उठता मन मयूर हे मेरा
मैं हूँ मामा, ये मेरी बिटिया

माँ माँ से बनता मामा है
जुग जुग जिए ये रानी बिटिया

दादा दादी, नाना नानी,
सबकी राजदुलारी बिटिया......

Tuesday, November 2, 2010

उनके घरों में भी उजाला हो.......

चेहरे कि चमक से जिस्म के जख्म छिपा नहीं करते
बनावटी फूलों से इस तरह चमन महका नहीं करते

लाख मुस्करा लो तुम भले ही ज़माने के सामने
दिलों में छिपे दर्द यूँ ही मिटा नही करते

खेलों में भी खेल, खेल गए मेरे ये रहनुमा
यूँ फकत रौशनी से ये अँधेरे मिटा नही करते

बात तो तब है उनके घरों में भी उजाला हो
यूँ अँधेरे में रख तुम्हारे दिल सहमा नही करते

ये कंगूरे देखकर क्यूँ इतराते हो तुम इस कदर
काश उस नीव कि ईंट पर तुम अपनी नजर रखते