हे न कुछ अजीब सा संबोधन
मगर हे ये सत्ये,
बात कुछ ऐसे ही चल रही थी
या कहे कि जुबान फिसल रही थी
बातों ही बातों में वो बोले
कुछ लिखने का मूड बना रहे हैं
हमने कहा हम भी ,मूड बनायेंगे
घर जाकर कुछ न कुछ पकाएंगे
सुरा पर तो अपना अधिकार हे
बिना सुन्दरी के मन बहलाएँगे!
वो बात को तुरंत ताड़ गए
बोले सुंदरी घर पर नही हे?
बात सुरा से शुरू होकर
सुन्दरी पर अटक गई
हमने कहा रोज दाल-रोटी
खाकर गुजारा करते हैं,
बोली आपका इशारा
हम समझ रहे हैं
लगता आप किसी मुर्गी
कि तलाश में भटक रहे हैं;
हमने मौके कि नजाकत को
तुरंत भांपा!
और अपना पासा तुरंत
मोह्तिर्मा पर फेंक डाला,
वो हमारी सोच से कही
ज्यादा, उस्ताद निकली,
और बोली, आपको
मटन -टिक्का, या चाहिए
चिक्केन चिली ?
आप रोंग नंबर डायल
कर रहे हैं,
यहाँ मुर्गी तो हे
मगर शाकाहारी हे
फिर क्यूँ आप गलत-फ़हमी में
पल रहे हैं!
उनके इस संबोधन से
हम पानी पानी हो गए
और उनकी इस अदा के
हम दीवाने हो गए!
हमने कहा हम इस
शाकाहारी मुर्गी को भी
पकाएंगे, मगर क्या पता था
कि बातों ही बातों में
ये कविता लिख जायेंगे!
Wednesday, December 29, 2010
Saturday, December 25, 2010
वर्चुअल मुलाकातें ........
मुझसे नाराज हे जिन्दगी,
हैरान हूँ मैं!
दिन , महीने , साल
यूँ गुजर गए,
पता ही नही चला!
रोज वर्चुअल मुलाकातें
ढेर सारी बातें,
कुछ काम कि, कुछ सिर्फ नाम कि
एक अंडरस्टेंडिंग सी हो गयी
और हम फोर्मल से हो गए
कब आप से,मैं और तुम हो गए
पता ही नही चला!
फिर एक दिन उन्हें एहसास हुआ
कि कुछ ज्यादा हो रहा हे,
वो बिफर गए, अचानक से
हमें आशचर्ये हुआ,
बोले अब बस, ज्यादा नही!
इतना ही ठीक हे,
हमने कहा न हम ज्यादा थे कभी
न कम थे,
बोले चुप रहो, जितना कहा
उतना समझो!
हमने कहा, हमें कुछ पल्ले नही पड़ा
आप कहना क्या कहते हो,
बोले तुम बाल कि खाल बहुत
निकालते हो;
हमने सोचा , यार ये ट्रैक पर
चलती हुई गड्डी, अचानक से
डी-रेल कैसे हो गयी !
हमें पूछा "कोई मिल गया"?
गुस्से से बिफरी वो,
फिर सोचा, यार ये
सुन्दर सपना टूट क्यूँ गया!
फिर हम बस यही गुनगुनाये......!
"हमने तो कोई कमी न कि थी
फिर भी न जाने क्यूँ उनको हमारा साथ, अखरा"
हैरान हूँ मैं!
दिन , महीने , साल
यूँ गुजर गए,
पता ही नही चला!
रोज वर्चुअल मुलाकातें
ढेर सारी बातें,
कुछ काम कि, कुछ सिर्फ नाम कि
एक अंडरस्टेंडिंग सी हो गयी
और हम फोर्मल से हो गए
कब आप से,मैं और तुम हो गए
पता ही नही चला!
फिर एक दिन उन्हें एहसास हुआ
कि कुछ ज्यादा हो रहा हे,
वो बिफर गए, अचानक से
हमें आशचर्ये हुआ,
बोले अब बस, ज्यादा नही!
इतना ही ठीक हे,
हमने कहा न हम ज्यादा थे कभी
न कम थे,
बोले चुप रहो, जितना कहा
उतना समझो!
हमने कहा, हमें कुछ पल्ले नही पड़ा
आप कहना क्या कहते हो,
बोले तुम बाल कि खाल बहुत
निकालते हो;
हमने सोचा , यार ये ट्रैक पर
चलती हुई गड्डी, अचानक से
डी-रेल कैसे हो गयी !
हमें पूछा "कोई मिल गया"?
गुस्से से बिफरी वो,
फिर सोचा, यार ये
सुन्दर सपना टूट क्यूँ गया!
फिर हम बस यही गुनगुनाये......!
"हमने तो कोई कमी न कि थी
फिर भी न जाने क्यूँ उनको हमारा साथ, अखरा"
Friday, December 10, 2010
मुझे आज भी याद है
हाँ मुझे याद हे
जब में पंजी/दस्सी (५ पैसे, १० पैसे)
ज्यादातर इस्तेमाल करता था
कभी कभी बिस्सी/चवन्नी (२० पैसे, २५ पैसे)
और अगर अठन्नी (५० पैसे)
मिल जाते, तो मैं शेर
हो जाया करता था,
रुपया कहा मिलता था तब
जेब खर्च के लिए!
तब रुपया नही मिलता था,
और अब रूपये कि
कीमत ही नही रही!
मुझे मलाल हे कि
मैं रुपया इस्तेमाल नही कर पाया!
बिटिया डैरेक्ट ही १० रूपये से
कम नही मांगती!
क्या वक़्त इतना बदल गया हे
एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी
में आना , इतना महगा हो गया हे
मुझे इसका एहसास नही था बिलकुल भी,
मुझे याद हे जब में ५ वी में पढता था
तो दश्हेरे के मेले में जब जाता था
तब मेरे पास २ रूपये होते थे
मालूम हे कैसे
आठ चवन्निया होती थी
जो में इकठ्ठी करता था
काफी दिन पहले से
मेले के लिए!
और अब तो मेले में जाने कि
हिम्मत ही नही होती!
बिटिया को भी शोक नही हे
कहती हे वहा जाओगे तो ज्यादा
खर्च होगा, आप मेरे को
टू हंड्रेड दे देना,
देखता हूँ कि आज रुपया
कितना छोटा हो गया,
अब बाजार थैला नही ले जाना पड़ता
पोलिथीन में ही काफी रूपये
समां जाते हैं!
भगवान् जाने आगे क्या होगा!
जब में पंजी/दस्सी (५ पैसे, १० पैसे)
ज्यादातर इस्तेमाल करता था
कभी कभी बिस्सी/चवन्नी (२० पैसे, २५ पैसे)
और अगर अठन्नी (५० पैसे)
मिल जाते, तो मैं शेर
हो जाया करता था,
रुपया कहा मिलता था तब
जेब खर्च के लिए!
तब रुपया नही मिलता था,
और अब रूपये कि
कीमत ही नही रही!
मुझे मलाल हे कि
मैं रुपया इस्तेमाल नही कर पाया!
बिटिया डैरेक्ट ही १० रूपये से
कम नही मांगती!
क्या वक़्त इतना बदल गया हे
एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी
में आना , इतना महगा हो गया हे
मुझे इसका एहसास नही था बिलकुल भी,
मुझे याद हे जब में ५ वी में पढता था
तो दश्हेरे के मेले में जब जाता था
तब मेरे पास २ रूपये होते थे
मालूम हे कैसे
आठ चवन्निया होती थी
जो में इकठ्ठी करता था
काफी दिन पहले से
मेले के लिए!
और अब तो मेले में जाने कि
हिम्मत ही नही होती!
बिटिया को भी शोक नही हे
कहती हे वहा जाओगे तो ज्यादा
खर्च होगा, आप मेरे को
टू हंड्रेड दे देना,
देखता हूँ कि आज रुपया
कितना छोटा हो गया,
अब बाजार थैला नही ले जाना पड़ता
पोलिथीन में ही काफी रूपये
समां जाते हैं!
भगवान् जाने आगे क्या होगा!
Wednesday, December 1, 2010
फासला ....
इक कदम तुम और इक कदम हम बढ़ाये
आओ अब हम कुछ इस तरह करीब आऐं
न हो फासला अब इक सांस का भी बाकि
मुद्दतों से हमने चाहतों के दीप हैं जलाये
आओ अब हम कुछ इस तरह करीब आऐं
न हो फासला अब इक सांस का भी बाकि
मुद्दतों से हमने चाहतों के दीप हैं जलाये
फासला ....
इक कदम तुम और इक कदम हम बढ़ाये
आओ अब हम कुछ इस तरह करीब आऐं
न हो फासला अब इक सांस का भी बाकि
मुद्दतों से हमने चाहतों के दीप हैं जलाये
आओ अब हम कुछ इस तरह करीब आऐं
न हो फासला अब इक सांस का भी बाकि
मुद्दतों से हमने चाहतों के दीप हैं जलाये
Subscribe to:
Posts (Atom)