आज का इंसान
इस कद्र है हैवान
सांप से भी
ज्यादा दंशवान
इंसान, मरता हे
सांप के काटने से,
लेकिन ये इंसान
इंसान के काटे बिना
ही, इंसान द्वारा ,
मार दिया जाता है,
सांप काटने से
पहले फुंफकारता है
लेकिन ये इंसान
चुपचाप, बिना फुफकारे
ही डस लेता हे,
जब तक समझ
में आता है!
तब तक उसका काम
तमाम हो जाता हे!
सांप तो अक्सर ही
केंचुली बदलता हे
लेकिन ये , इंसान
ओढ़े रहता हे
केंचुली पर केंचुली;
कैसे पहचानोगे
इस इंसान को
जिसकी खुद कि
खुद को नही होती हे
कोई पहचान!
Friday, January 7, 2011
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6 comments:
aaj ke insaan me sabhi khubiya hai .........alok ji
Beautiful as always.
It is pleasure reading your poems.
superb..सांप का काटा बच सकता है पर इंसान का विषवमन मार कर ही छोड़ता है.
सच कह रहे हैं, कभी कभी पहचानना बड़ा कठिन हो जाता है।
सांप और इन्सान की दूरिय घटती जा रही है .
अलोक जी ............. बहुत ही सामयिक और आज के हालात पर सुंदर कविता.......
.
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