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Tuesday, August 28, 2012

देश का भविष्य!







Blog parivaar
चूहला, कुछ गीली लकड़ियाँ , भीगे हुए उपले,
माँ हाथ में फूंकनी लिए जोरो से खांसते हुए
बेदम होती हुई सी, एक नाकाम कोशिश को
कामयाबी कि और मोड़ती हुई, आग जल उठती है!

ये आग तो जल ...उठी, इसके जलने से पेट कि आग
और जोरो से ...भड़क उठती है एक उम्मीद के साथ,
सवाल मुहं बाये खड़ा है ख़ाली बर्तन चूहले पर चढ़ा है
उधर.. ख़ाली ...पड़े डब्बों में यूँ ही कुछ टटोलती माँ!

इसी निरर्थक प्रयास में, चूहला ..अथक ...कोशिशों के बाद
फिर से बुझ जाता है, ख़ाली बर्तन धीरे से मुस्करा उठता है
देश का ..भविष्य थाली और कटोरी लिए बैठा है इंतजार में
माँ को भविष्य कि चिंता सता रही है, ये उसकी जिम्मेदारी है!

उधर संसद में बहुत ही जिम्मेदार लोग,इस पर बहस कर रहे हैं
गरीबों के लिए बजट में संशोधन कर रहे हैं दो वक़्त का खाना
जरुरी है सभी के लिए, सरकार इसके लिए पूरी तरह प्रतिबद्ध है
बजट राशी पिछले साल से दोगुनी कर दी जाती है, उनका काम पूरा!

क्यूंकि भविष्य कि चिंता तो उस माँ कि जिम्मेदरी है!
(इक ख्याल अपना सा... "आलोक")

Monday, August 13, 2012

हाई ये महगाई



जब छोटा था, छोटा मतलब छोटा, यानि के ५वि ६वि कक्षा में पढता था , तब हमारे यहाँ कोयले कि
प्रेस होती थी!  प्रेस में अंगारे जलाने का काम मेरा ही होता था! बाबू जी ये काम मुझको ही सौंपते थे,
ऐसा इसलिए नही कि मैं इस काम में निपुड था, बल्कि इसमें मेरा व्यक्तिगत  फ़ायदा था, अब आप लोग सोच रहे होंगे कि इत्ती छोटी उम्र  में  कोई फ़ायदा कैसे सोच सकता है, वो भी उस ज़माने में, लेकिन भैये फ़ायदा था तभी हम सबसे आगे रहते थे कि प्रेस हम गरम करेंगे! मुझको इत्ती छोटी उम्र से ही चाय कि लत कुछ हद्द से जायदा हि लग गयी थी! जब देखो  कैसे चाय बना कि पी जाये ! इसी जुगाड़ में रहता था!  लेकिन प्रेस जलाने का काम तो सिर्फ  इतवार को ही होता था!  बस घर  के एक कौने में हम प्रेस गरम करते थे,  और चुपके से एक बड़ी सी कटोरी में , पानी, चाय कि पत्ती/ चीनी और ढूध डालकर प्रेस के कोयले पर चढ़ा दिया करते थे,
और हाथ में पंखा या गत्ता लेकर प्रेस गरम करने के साथ साथ अपनी चाय भी बना लिया  करते थे! हालाँकि चाय धुआंयी हुई बनती थी, लेकिन जिस स्मार्टनेस हम चाय बनाते थे तो उसका वो स्वाद भी गज़ब का होता था!  कई बार चाय बन्ने में देरी हो जाती थी, बाबू आवाज लगाते  प्रेस अभी तक गरम नही हुई, हम धीरे से कहते कि बस होने वाली है कोयले जरा गीले हैं बाबू जी!  अब बाबू जी को क्या पता  कि हम चाय पका रहे हैं!
कहते जल्दी से लेकर आ! 
लेकिन अब हमने  चाय पीनी काफी काम कर दी है!  इतनी महगाई में चाय, चीनी इतनी कडवी होती जा रही है कि पूछो मत!  जब भी कोई आता है दोस्त बैगेरा हम महगाई का रोना शुरू कर देते हैं! लेकिन पत्नी जी अपनी फोरमेलिटी निभाने से बाज नही आती!  तब हम कहते भाई देख ले  मैंने तो अब चाय पीनी छोड़ दी है!  दोस्त कि और इशारा कस्र्के पूछते कि तेरे को पीनी हो तो बनाबा दूँ! अब बेचारा वो शर्म के मरे मना कर देता!  हाँ ये बात और है कि ऑफिस में  हम २ चाय एक्स्ट्रा ही पीकर घर  को जाते हैं!  क्या करे इस मुई नेह्गायी से कैसे तो पार पाना पड़ेगा! पता नही ये महगाई और कौन कौन से हमारे शौक छुडवाएगी ! Blog parivaar

Monday, August 6, 2012

<----भाव खाना (नखरे मारना) -->

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अरे ओ कलुआ, हाँ माँ मुझे इसी नाम से बुलाती थी! शायद घर में सबसे ज्यादा सम्बला रंग
मेरा ही था! मैं थोडा अनमना सा माँ के पास जाता हाँ माँ बोलो, माँ बुरादे कि अंगीठी के पास
बैठी शाम कि चाय बना रही होती है! कहती जा जाकर अपने बाबूजी को चाय दे आ! स्कूल से
आने के बाद टूशन पढ़ा रहे हैं, थकान हो रही होगी! मैं चाय का कप लेकर बाबू जी के कमरे में
जाता, और कहता बाबू जी चाय..

बाबू जी शायद थकान के मारे या अत्येधिक परिश्रम के कारन
गुस्से में चिल्लाते ले जाओ चाय मुझे नही पीनी! मैं एक बार अनमने मन से कोशिश करता कि पी
लो, बाबू जी पहले से भी जोरो से चिल्लाते कहा न बापिस ले जा! मैं डर के मरे चाय का कप बापिस ले
जाकर माँ के पास आ जाता! माँ कहती क्या हुआ, मैं कहता नही पी रहे , चिल्ला रहे हैं, माँ के
चेहरे पर तनाव साफ़ झलकता था! लेकिन कोई उपाए नही! फिर कहती ठीक है रख दे, छोटे को भेज
उसी के हाथ भेजती हूँ! बाबू जी और छोटे भाई का तालमेल अनूठा था, दोनों एक दूसरे को अच्छे से
समझते थे, लेकिन उस वक़्त मेरा बाल मन इसको कुछ और ही समझता था, कि बाबू जी मेरे हाथ
से चाय नही लेते, जबकि छोटे के हाथ से ले लेते थे! या हो सकता हे कि वो जाकर बाबू जी कि मनुहार
करता हो कि पी लीजिये! और मेरे से ये सब होता नही था! मैं उस वक़्त 8th क्लास में था! तब मैं सोचता था कि बाबू जी के पैसे कि चाय बाबू जी फिर भी नखरे क्यूँ मारते हैं! पीनी हे तो पियो नहीं पीनी तो
मत पीओ! खैर जो भी हो, कई बार ऐसा होता था कि घर में सिर्फ मैं ही होता था, तब माँ के पास
कोई चारा नही होता था मुझको ही चाय लेकर भेजती थी, और कहती थी कि बेटा जबरदस्ती रख
के आ जाना! मैं कुछ नही कहता और चाय लेकर चला जाता, बाबू जी उसी तरह का बर्ताव नही पीनी
ले जाओ बापिस, मैं रखने कि कोशिश करता बाबू जी जोरो से चिल्लाते बहरा हे क्या सुना नही! मैं डर के
मरे बापिस ले आता! माँ के चेहरे पर फिर तनाव, और वो जानती थी कि आज तो कोई और हे भी नही,
चाय कैसे पियेंगे तेरे बाबू जी, मैं कहता माँ छोटा टूशन से आ जायेगा तो उसके हाथ भेज देना! ये सिलसिला
चलता ही रहता था! और बाबू जी अपने इस बर्ताव के करना कई बार बिना चाय कि ही रह जाते थे!
माँ अपनी ड्यूटी पूरी शिद्दत से करती थी, रोजमर्रा का यही काम था, ऐसा अक्सर ही होता था कि मैं ही
घर पर होता था, मैं माँ कि मज़बूरी समझता था, साथ ही बाबू जी के वर्ताब से भी आहत था, लेकिन
जब माँ चाय बनाती तो मुझे आवाज नही देती, लेकिन मैं जाकर माँ से कहता कि ला माँ मैं बाबू जी
को चाय दे आऊ, माँ मना कर देती थी, रहने दे तेरे हाथ से नही लेंगे, लेकिन मैं जिद्द करता के दे तो
सही, देखता हूँ कब तक नही लेंगे मेरे हाथ से, अब मैं चाय लेकर बाबू जी के कमरे में जाता, बाबू जी तिरछी
नजरों से मुझे देखते और पढ़ाने में मशगूल हो जाते, मैं धीरे चाय टेबल पर रख कर कमरे के बाहर आ जाता
और कन्खिओं से देखता कि बाबू जी चाय पी रहे हैं या नही, उधर माँ का तनाव अपनी जगह, फिर मैं देखता कि बाबू जी चाय पी रहे हैं, मैं आकर माँ को खुशखबरी देता कि आज तो बाबू जी न चाय पी ली! माँ के
चेहरे पर आये संतुष्टि के भाव से मैं आत्मविभोर हो जाता! फिर मैं सोचता कि अब बाबू जी क्यूँ नही चिल्लाते
मैं जब भी चाय लेकर जाता! शायद इसलिए कि उनको पता हे कि ये मन-मनुहार नही करने वाला, इसलिए खामखा नखरे दिखाने में अपना ही नुक्सान है! मेरा बाल मन उस वक़्त इतना ही सोच पाता था! इसको
मैं अपनी जीत भी मानने लगा था, कि कोई भी इंसान भाव(नखरे) क्यूँ खाता है! और ये मेरी तभी से आदत
भी पड़ गयी कि खामखा के नखरे किसी के भी नही सहने.. जब मैंने अपने ही बाबू जी के नखरे नही सहे,
तो किसी और कि तो बात ही क्या है! .....

(इक ख़याल अपना सा! .......... कथानक सच्ची घटना पर आधारित है! आप सभी के कमेंट्स का आपकी
बहुमूल्य राय के साथ स्वागत है!