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विष्णु प्रभाकर जी ने कहा की दर्द सहने की यातना से गुज़रे बिना कोई लेखक
नही बन सकता! मेरा ये मानना है की इसका मतलब ये नही की आपने वो दर्द
झेलना है या वो यातना सहनी है! किसी का दर्द महसूस करके उस दर्द को अपने
शब्दों में उतारकर जनमानस के दिलो-दिमाग पर छा जाना भी साहित्ये ही है!
एक और बात उन्होंने कही की साहित्ये चाहे
वो कविता हो, गध काव्य हो या कहानी इन सबके मूल आधार में कोई न कोई कथानक
होता है, यानि के हम कह सकते हैं की किसी भी प्रकार का साहित्ये हो उसके
मूल में कहानी ही होती है! वो आगे कहते हैं की नाटक मंच से कही गयी कहानी
ही है और उपन्यास कथात्मक घटनाओ का एक विस्तार! चाहे आप किसी भी विधा में
लिखे कहानीकार सर्वत्र सक्रिय है!
विष्णु प्रभाकर जी ने आगे कहा
की उनकी कहानिओं का आधार "ज्ञान" नही "अनुभूति" रहा है! जो उन्होंने अपनी
यात्राओं में, सामाजिक जीवन में जो महसूस किया उन्ही सब चरित्र को उन्होंने
अपनी कहानिओं में उतारा है! लेकिन मैं यहाँ एक बात जोड़ना चाहूंगा की कथ्य
में तथ्य का होना भी जरुरी है कहानी वो जिसमे पाठक खुद को महसूस करे! और
जो सबसे बड़ी बात उन्होंने कही की उनके कहानीकार बनने की प्रेरणा या कारण
उनका पढ़ना, उन्होंने रविन्द्र, शरत, प्रेमचंद, प्रसाद इत्यादि महान
रचनाकारों की रचनाये पढ़ी थी! ये अपने आप में एक प्रेरणात्मक बात है जिसे हर
रचनाकार को ईमानदारी से अपनी साहित्यिक साधना में उतारना चाहिए! लेकिन
अफ़सोस आजकल के रचनाकार मैं सभी की बात नही कर रहा पर अधिकतर खुद को
साहित्यकार समझने या बनाने की कवायद में लगे हैं वो वास्तव में कितना पढ़
रहे हैं उन महान साहित्यकारों को! और यही एक विडंबना है हिंदी साहित्ये
के पतन की आज साहित्य रचा तो थोक के भाव में जा रहा है लेकिन पढ़ने वाले
नगण्य हैं, जो की हिंदी साहित्य के पतन के मूल कारणों में से एक है!
उपरोक्त बात में इस आधार पर कह रहा हूँ की आज साहित्य कितना बिकता है
बाजार में साहित्यकार और प्रकाशक मिलजुलकर जैसे तैसे काम चला रहे हैं!
डिमांड है ही नही बाजार में अधिकांशतः कुछ एक अपवाद जरूर हो सकते हैं!
आज विष्णु प्रभाकर महान साहित्यकार कहलाते हैं क्यूंकि उन्होंने अपने से
पहले उन महान साहित्यकारों को अपने में आत्मसात किया उनको पढ़ा फिर लिखा!
अब आप सोच रहे होंगे की मैं ये सब क्यों शेयर कर रहा हूँ, इसके पीछे एक
ही कारण है "हिंदी सहित्य को उचित सम्मान" मिले जो की पिछले काफी समय से
नही मिल पा रहा है! प्रयास किये जा रहे हैं लेकिन मंजिल अभी बहुत दूर है!
अगर हमें हिंदी साहित्य को उसका समृद्धिशाली गौरव लौटना है तो हम सभी को
सबसे पहले पढ़ने की आदत डालनी होगी उन महान और समकालिक साहित्यकारों को पढ़ना
होगा उनको समझना होगा! आखिर हम आज भी उन साहित्यकारों का नाम क्यों लेते
हैं कुछ तो बात होगी उन सभी में, यूँ ही तो वो महान नही बन गए!
अंत में मैं यही कहना चाहूंगा की पहले पढ़ने की आदत डालो फिर लिखने की कल
शायद आपके किसी के नाम के पहले महान शब्द जुड़ जाये, और हाँ महान वही होता
है जिसको जनमानस स्वीकारे, किसी एक या दो गुटबंदिओं से कोई महान नही बनता
वो सिर्फ आत्मुग्धता की स्थिति होती है!
उपरोक्त चेतनात्मक आलेख
है जो बाते बीच बीच में मैंने कही हैं वो मेरे निजी विचार हैं उनसे किसी का
सहमत होना या न होना जरुरी नही है!
"आलोक"
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