क्या लिखा रहा हूँ मुझे नही पता
शब्द बिखर रहे हैं इधर उधर
बड़ी मुश्किल से आशार बनाता हूँ
फिर उनको सिलसिलेबार सजाता हूँ
फिर कुछ ऊपर कुछ नीचे खिसकाता हूँ
फिर देखता हूँ, की कैसी बन पड़ी है
फिर एक लम्बी सांस लेता हूँ
सोचता हूँ की अब मुकम्मल हुई है
पर ये क्या, ये तो मेरी ग़ज़ल बन पड़ी है
फिर में तेरा अक्स देखता हूँ
कभी में ग़ज़ल को देखता हूँ
फर्क मुझे समझ नही आ रहा
कि कौन सुन्दर है दोनों में
तुम या ये मेरी ग़ज़ल
में असमंजस में हूँ
की तुम से ये ग़ज़ल है
या ये ग़ज़ल तुम ही हो
तुम्ही बताओ न !
114. साहस और उत्साह से भरी राह
15 hours ago
3 comments:
फिर देखता हूँ, की कैसी बन पड़ी है
फिर एक लम्बी सांस लेता हूँ
सोचता हूँ की अब मुकम्मल हुई है
पर ये क्या, ये तो मेरी ग़ज़ल बन पड़ी है
फिर में तेरा अक्स देखता हूँ
कभी में ग़ज़ल को देखता हूँ
इन पंक्तियों ने दिल छू लिया... बहुत सुंदर ........रचना....
फिर देखता हूँ, की कैसी बन पड़ी है
फिर एक लम्बी सांस लेता हूँ
सोचता हूँ की अब मुकम्मल हुई है
पर ये क्या, ये तो मेरी ग़ज़ल बन पड़ी है
फिर में तेरा अक्स देखता हूँ
कभी में ग़ज़ल को देखता हूँ
इन पंक्तियों ने दिल छू लिया... बहुत सुंदर ........रचना....
THNX BRO
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