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Monday, January 10, 2011

दूर के ढोल सुहावने होते हैं!

दूर के ढोल सुहावने होते हैं!


ये मुहावरा ९वि -१०वि कक्षा में पढ़ा था

लेकिन बचपना होने के कारण

मुझे इसका अर्थ समझ नही आता था

या कहो कि कोन्फ़ुइज हो जाता था

क्यूंकि जब भी कही ढोल बजते थे,

कानो मैं आवाज आते ही,

हम सब बच्चे, मोहल्ले के

शोर मचाते हुए वह पहुँच जाते थे

और ढोल के आवाज पर नाचते हुए

लोगो को देखकर, खूब हँसते थे,

तो अब आप बताइए कि

ढोल नजदीक से सुहावने हुए

या दूर से, !

लेकिन वो बचपना था

या कहो कि नासमझी

अब जवानी से होते हुए

अधेड्ता कि और कदम बढ़ा चूका

ये वक़्त, बकाई, उस समय के

पढ़े मुहावरों को कितनी चपलता

से उनका मतलव समझाता चला

जा रहा हे, आज के इस व्यावसायिक

समय में,

क्यूंकि बहुत सी चीजें

दूर से ही सुहावनी लगती हैं

और जैसे ही आप उनके नजदीक

आते हैं, तो हकीकत कि पोल

आपके सारे भ्रम तोड़ देती हैं

और आपको उस वक़्त पढ़े हुए

मुहावरे का वास्तविक और यथार्थ

के धरातल पर परखा हुआ

प्रमाणिक सच सामने आ जाता हे

फिर हम सोचने लगते हैं

कि काश वो बचपना फिर से

आ जाये! और इस मुहावरे को

फिर से गलत सवित करे!

5 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

दूर के ढोल सुहावने होते हैं,
पास आने पे डरावने होते हैं।

उपेन्द्र नाथ said...

अलोक जी , सच दूर के ढोल सुहाने ही होते है......... हकीकत उतनी सुहानी नहीं होती............. सुंदर प्रस्तुति.

shikha varshney said...

गहन चिंतन कर डाला इस बार तो.

सदा said...

गहन भावों को व्‍यक्‍त करती सहज अभिव्‍यक्ति ।

Anonymous said...

"तो हकीकत कि पोल
आपके सारे भ्रम तोड़ देती हैं"

सच्ची और अच्छी बात - कविता के अंदाज में कहें तो और अच्छा रहेगा