कहाँ जाते हो रुक जाओ
तुम्हे कम्युनिटी कि कसम देखो
बिना पोलिटिक्स न रह पाओगे
जाकर इक कदम देखो,
बनाये रिश्ते लाखों तो क्या
निभा इक भी न पाए तुम
दिखावा इतना किया जालिम
कि अब पछताते क्यूँ हो तुम,
मुंह में रखते हो तुम "रामा"
बगल मैं छुरी देखो पैनी
बहाया खून रिश्तों का
कि आत्मा भी हुई छलनी,
क्यूँकर ऐसा किया तुमने
ये तुमको भी शायद पता न हो
वक़्त रहते जो समझ जाते
फिर क्यूँ किस से खता ये हो,
अब जो हुआ सो हो चूका
सुधरकर तुम संभल जाओ
इल्तजा इतनी सी हे जानम
तुम बापिस लौटकर आओ!
10 comments:
मुंह में रखते हो तुम "रामा"
बगल मैं छुरी देखो पैनी
बहाया खून रिश्तों का
कि आत्मा भी हुई छलनी,
katu satya
ओह हो हो क्या हो गया कलम की धर तेज हुई जा रही है....
कृपया, अब लौट भी आओ।
Aisa wyakti kabhi sudhar sakta hai?
कहाँ जाते हो रुक जाओ
तुम्हे कम्युनिटी कि कसम देखो
बिना पोलिटिक्स न रह पाओगे
जाकर इक कदम देखो,
बेहतरीन पंक्तियाँ ! बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति !
आज पहली बार आपका ब्लॉग देखा.अच्छा लगा यहाँ आना.वसन्तोत्सव की बधाईयाँ.
वर्तमान सन्दर्भों को उद्घाटित करती सुंदर प्रस्तुति ..शुक्रिया आपका
मुंह में रखते हो तुम "रामा"
बगल मैं छुरी देखो पैनी
alok ji , bilkul sahchai kahi hai aap ne. sunder prastuti.
Achi iltija hai dua hai kubul ho jaye jald hi
aap sabhika dils e abhaar
Post a Comment